गुरुवार, 20 जून 2019

बेघर !!


चले जा रहे है....

कहाँ ?
पता नही.....
किसी ने पूछा?
घर जा रहे हो,
घर....कैसा घर,
घर क्या सिर्फ
चार दीवार होते हैं।
जहां,सिर्फ सनाटा,
खड़े चार दीवार ,
फिर भी चारों अकेले
वृहद खालीपन,
 बेटी ने कहा ,
मेरे 'घर'आ जाओ...
पति ने कहा,...
मेरे घर आ जाओ...
फिर कानों में जोरदार गूँज,
घर, मेरा घर कहां.......
 घर को चलाते,चलाते
मैं बेघर...........
नहीं है कोई घर मेरा !!
जा रही फिर क़ैद में चार दीवारों  की।।
                   पूनम🤔

सोमवार, 18 जून 2018

आपने फुरसत में आने का बहाना जो शुरू किया,

ख्वाबों ने भीे नींद का आशियाना छोड़ दिया ।।

                                           पूनम💗

शनिवार, 16 जून 2018

फादर्स डे!!


पापा, आज के पापा,
फादर्स डे मनाते पापा,
ऑफिस, मीटिंग से भाग -भाग
बच्चों का डायपर बदलते पापा।
कठिन है, पर घर बाहर
दोनों जिम्मेदारी लेना,
काम काजी दुनिया में
मम्मी के संग कदम से कदम मिला
हाँथ बटाते पापा।।
फादर्स डे मनाते पापा।।

पहले पापा के घर में आते
बच्चे सहम, सिमट जाते थे
अपने काम में लग जाते थे,
मम्मी भी शेर आएगा जैसे
पापा का डर दिखा,डराती थीं।
होते थे बाहर से कठोर ,
अंदर कोमल पापा,
भाया मम्मी बातें जानते थे पापा।

आज फूल की तरह खिला बच्चों को
उनके साथ खेलते, खाते
अकेले दम पे 'पापा'बनते पापा।
बच्चों के सुपरमैन बनते पापा।

बच्चों के पढ़ाई से खेल तक ,
गृहकार्य से प्रोजेक्ट तक ,
परीक्षा काल में जागते,
अपनी अच्छाइयों और बुराइयों से अवगत कराते,
दुनिया दारी सिखाते,
हंसते ,खिलखिलाते पापा।
फादर्स डे मनाते पापा।
हैप्पी फादर्स डे।।
पूनम♥




सोमवार, 11 जून 2018

यादें! खट्टी-मीठी।।

कहतें हैं कि जब बचपन की याद आने लगे, मतलब आप अपनी जिंदगी के संजीदे पड़ाव पर आ गए हैं।अब ये बात सच है या नहीं, ये तो नहीं मालूम मुझे। लेकिन अस्वस्थता की स्थिति में अपने वातानुकूलित कक्ष में पड़े हुए मुझे बहुत याद आ रहा है अपना बचपन ।
बार बार याद आती है,वो बचपन की बातें।
गाँव की वो चौखट,
जहाँ बैठी होतीं थी घर की बड़ी बूढ़ी
और आते जाते किसी राहगीर से उसका हालचाल जरूर पूछतीं, किस गाँव के हो,भैया ,बाबू.........जो भी संबोधन होता ,जरूर करतीं.....थोड़ा पानी तो पी लो।
और वो राहगीर भी ,भले ही वो फेरी वाला हो या कोई और, ड्योढ़ी के बाहर ही  थोडे बाएं हट के बने कुएं के मेड पे जरूर बैठता। और कैसी हैं मालकिन , कह कर कुछ बात चीत शुरू हो जाती।हम बच्चों को घर के अंदर से कुछ चना चबेना  उस के लिए लाने के लिए कहा जाता।
   बहुत छोटी थी तो मैंने ऐसा अपनी दादी को करते देखा था। बड़ा मजा आता था हमें।जब घर के भीतर जाती कुछ मांगने उस राहगीर के लिए तो, माँ या चाची जो व्यस्त होतीं घर के काम काज में,थोड़ा कुनमुना भी जातीं। 'बूढ़ी' को तो कोई काम नहीं है,दिन भर ड्योढ़ी पर बैठ हुकुम चलाते रहती हैं।लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता था,हम तो अपने खेलने के लिए परेशान रहते थे और जल्दी दो ना कुछ कह के चिल्लाते।।।कभी कभी इन सब के चक्कर में, हम डांट भी खा लेते,लेकिन परवाह किसे थी।
बाहर दादी उस राहगीर से अपनी बीमारी से लेकर फसल कैसी हुई और बहुएं कैसी हैं सारी बातें बतिया लेतीं।कभी कभी तो आस पास के गाँव से शादी ब्याह भी पक्का हो जाता।।।
आज सोचती हूँ मैं कि अब संभव है ऐसा क्या?अब तो दरवाजे पर आये किसी अनजान इंसान से डर लगता है।भले ही इस चक्कर में हम जरूरत मंद को भी नहीं पूछते।
     उस समय तो हम छुट्टियों में गाँव जाते थे,गर्मी की छुट्टियां गाँव में ही बीतती थी।
और तब हमें ऐसी गर्मी भी तो नहीं लगती थी।पूरी दोपहरी लाख डांट सुनने के बाद भी हम सब बच्चे, आम के टिकोरे चुनने निकल जाते थे।क्या मजेदार दिन थे !!

आज वातानुकूलित कमरे में लैपटॉप, मोबाइल में बैठे बच्चों के लिए ये सब सिर्फ कहानी मात्र है।।और समझे भी कैसे वो,इसमें भी तो हमारी ही गलती है।

घर के आम कामकाज से थकी ,सोती हुई माँ-चाची से छूप कर हम सब बच्चे भरी दोपहरी में छत के उस कोने में अड्डा जमाते थे,जहां से पीपल का पेड़ लगा हुआ था।और क्या ठंडक होती थी ! उस पीपल के पतों के हवा में......वो आज तक कहीं ना मिला हमे। हम शहर में रहने वाले भाई बहन,उन गाँव के बच्चों के पीछे लगे रहते थे। हम उन्हें ज्यादा होशियार समझते थे क्यों कि वो हमें पीपल के पेड़ के भूत से लेकर गाँव के पोखर में रहने वाले मंडूक( भूत) की ढेर कहानियां सुनाते रहते थे,और उसके ऐवज में बड़ी मुश्किल से चुने हुए हमारे आम पर हाथ साफ करते रहते थे।ये हमें अब समझ मे आता है....., हाहा।।
धीरे धीरे हम भी बड़े हो गए। दादी भी नहीं रहीं।।अब कुछ अलग मौकों पर भी गावँ जाना होता रहा जैसे, बाबा ,दादी के श्राद्ध वगैरह और शादी ब्याह के उन मौकों ने हमें थोड़ा और बड़ा कर दिया।मां ,चाची के व्यवहार में भी हमें बदलाव दिखने लगा।कल तक दादी के कहे जिन कामों से कभी चिढ़तीं थीं वो,आज वही काम करते दिखती थीं वो हमें।फिर भी उस समय हमें इतनी समझ कहाँ थी।

समय बीतता गया ,समय के साथ हम भी व्यस्त होते गए।स्कूल की बडी कक्षा के बाद कॉलेज के हॉस्टल प्रवास में व्यस्त हो गए हम भी ।गाँव जाना उतना क्रमिक ना रहा। जाते थे पर काफी कम समय के लिए। उस के बाद शादी भी हो गई तब तो और भी कम हो गया।ससुराल, पढ़ाई और मम्मी के पास जाने से कभी समय ही न मिल पाता ।लेकिन चाचा चाची से समय समय पर मिलना यत्र तत्र हो जाता था।

जीवन की व्यस्तता ने हमें और बड़ा कर दिया था।इसी बीच एक बार मौका मिला फिर गाँव जाने का।चाचा के बेटे को पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई थी।मुझे बड़े अरमानों के साथ बुलाया गया।इन सब में मैं ये बताना कैसे भूल सकती हूँ कि मेरे चाचा चाची के तीन पुत्रियों के साथ एक पुत्र था, हम सब साथ में ही पापा के पास शहर में रह कर पढ़ते थे,जो की उन दीनों मे आम बात थी।चाचा चाची गाँव में रहते थे। सबसे खास बात ये कि मुझसे चाचा और चाची दोनों का बहुत हीं लगाव था और ढेर लाड़ मिलता था मुझे । दोनों हीं मुझसे अक्सर अपने दिल की बात किया करते थे ,पता नहीं क्यों।

हां तो मैं कह रही थी कि गाँव से चाचा से मिले मुझे खास निमंत्रण में जाने के लिए मैं भी बहुत उत्साहित थी और गई भी। बड़ा मजा आ रहा था,अपने बचपन के दिनों का पुनरावृत्ति तलाश रही थी मैं पर जो शायद संभव नहीं था।
उन्हीं चार दिनों के गाँव प्रवास की एक दोपहरी में जब मैं बाहर निकली तो वही ड्योढ़ी.....पर वहां दादी की जगह चाची
बैठी थीं ,ऐसा लगा जैसे समय दुहरा रहा रहा था अपने आप को।बड़ा अच्छा लगा मुझे,मैं भी बैठ गई वंही चाची के पास।लौट आया मेरा बचपन, लेकिन अब बहुत कुछ समझने लगी थी मैं।शब्द वही थे बिल्कुल जो दादी के हुआ करते थे,लेकिन पात्र बदल गये थे।दादी की बहू की बातों के जगह अब चाची की बहू की बातें थीं।।

समय ने एक पीढ़ी करवट ले ली थी।
सबसे दुखद तो मेरे लिए ये रहा कि चाची से मेरी वो आखिरी मुलाकात रही।उसके बाद रह गई सिर्फ उस ड्योढ़ी की यादें,सिर्फ खट्टी मीठी यादें।।
. पूनम😊

शुक्रवार, 11 मई 2018

दर्दे दिल....

वादा किया, कभी रुख़सत न होंगे
अनजाने राह पे दर्दे दिल बयां हुई।।

हाले दिल नहीं सबका एक सा,
हमारी दिले बयान सरेआम हुईं।।

ख्वाब देखना भी एक शगल था
अरमाने कत्ल भी अब आम हुईं।।

व्यवहार हर का होता नहीं एक
पर परख कर बातें तमाम हुईं।।

इजहार की गुलाब गईं मुरझा
प्यार से वफ़ा काफ़ूर हुईं।।

इंतजार किया उसे पाने की,
हर कोशिशें नाकाम हुईं।।

नयन थीं सब एक सी
पर अंदाजे नजर तमाम हुईं।।

बेबाक सी है हर एक तमन्ना
गुस्ताखियों में दिल बदनाम हुईं।।

इंतजार,इजहार,गुलाब,ख्वाब,वफ़ा,नशा
उसे पाने की कोशिशें तमाम हुईं सरेआम हुईं।

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

डर...मन का !!

जब  ही धरा पे
आई तनया..
पराई है,पराई !
पराये घर जाएगी,
इस डर के साथ
सब ने ढोल बजाई।

जाने लगी जब स्कूल,
निकल घर से,
दूर रहना परायों से,
मन में बसाया ये डर।
थोड़ी और बड़े होने पे,
कायदे सिखाते हर बात पे।
दिया जाता ये डर,
जाना है दूसरे घर।
सीख ये दी जाती हर पल,
एक भी गलत कदम पे
कुल के नाक कट जाने का डर।
गलत कदम हो किसी और का,
फिर भी जिंदगी भर तंश झेलने का डर।

अब हुआ ब्याह..
दिल था अरमानों से भरा....पर!
पराये घर से आई है....
सुन, मन ही मन गई डर।
ससुराल वालों की सेवा में,
रह ना जाये कोई कोताही
हर वक्त बना रहता ये डर।
कभी पति का डर,
कभी तानों का डर,
एक दूर होता नहीं ,
की आ जाता दूसरा डर।

अब बच्चों के लालन पालन का डर,
उनके शिक्षा और विकास का डर
बढ़ती उम्र में उन्हें
बुराइयों से दूर रखने का डर।
फिर नीड  हुआ खाली,
उड़ गए पंछी बनाने को नए घोंसले
चलो अब तो अपने आंसू पोंछ लें।
पर!अब कटेंगे दिन कैसे
इस बात का डर।।

अभी कहाँ खत्म हुई कहानी
बढ़ते उम्र की शुरू हुई कई परेशानी...
चाह होती कुछ कहने की
फिर  भी रखो मुँह बंद,
नहीं तो बच्चों का डर।
डर, डर, डर....
डर बनाम स्त्री का जीवन,
कभी ना होगा,...क्या?
इसका निराकरण!

पर...मर मर कर जीना
अब मंजूर नहीं,
अपनी कमी को
ना बनाओ अपना डर,
हौसला दिखाओ
और डर को डराओ।
डर को  खुद की
हिम्मत बनाओ।।

डर से ना तुम डरना
निर्भीक हो के बढ़ना
सुनना जरूर सबकी
करना अपने मन की
डर कंहीं और नहीं,
है तुम्हारे अंदर।
मन का डर भगाना
डर से ना तुम डरना।।
                  पूनम😯

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

नहीं मैं कोई कवयित्री!!



कवयित्रि!......नहीं ,
मै  कहाँ कवयित्री कोई।
नहीं रचती मैं कोई कविता
मैं,सिर्फ एक 'नारी' हूँ ,
जो,सिर्फ अपने भावों से भारी हूँ ।
दिल के पन्ने से उतार ,
कर देती कलम बद्ध ,
सदाशयता से हिय के बोल।।

कौन अपना ,कौन पराया
ये जग तो है सिर्फ मोह माया।
सुख-दुख में प्लवन करती,
जीवन नैया की खेवैया हूँ मैं
सपनों की गठरी हूँ मैं,
सिर्फ एक 'नारी' हूँ मैं

चित्तवृत्ति को समझना तो दूर,
ये तुमने मुझे क्या बनाया।
दिल ने दिल के अरमानों को ना समझ
कवयित्री का ये चोला क्यों पहनाया।।

नहीं!.......मैं शब्दों से खेलती भी नहीं,
ना बुनती हूँ शब्दों का कोई जाल,
मैं तो अपने अरमानों को पहनाती हूँ
बस कुछ शाब्दिक जामा,
सजाती हूँ उन्हें कल्पना के उड़ान से,
संवारती हूँ भावों की लहरों के उत्थान से।
ना ही कोई ज्ञान मुझे कवि या कविता का,
ना ही कोई अरमान.. कवयित्री बनने का।

मैं तो बस एक साधारण सी बाला
जो सब की, पर कोई नहीं उसका आला।
अपने एकाकीपन को सहलाती
कभी खिलती ,कभी कुम्हलाती
ख्वाबों को निहारती,कुछ रच जाती।
नहीं, मुझे नहीं बनना कवयित्री।

हाँ ....हास्य,रुदन,गायन
हर भावों में कर विचरण,
करती सर्व जीवन यापन
सृष्टि की सृजन कर्ता,
स्वयं में ही सर्वग्या।
सिर्फ और सिर्फ एक 'नारी'हूँ मैं,
नहीं.....नहीं कोई कवयित्री मैं ।।
पूनम😊

तट

तोड़ते रहे तुम बंदिशें , और समेटती रही मैं,  बारंबार ! की कोशिश जोड़ने की, कई बार ! पर गई मैं हार , हर बार ! समझ गई मैं, क्यु हूँ  बेकरार ! ...