गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

डर...मन का !!

जब  ही धरा पे
आई तनया..
पराई है,पराई !
पराये घर जाएगी,
इस डर के साथ
सब ने ढोल बजाई।

जाने लगी जब स्कूल,
निकल घर से,
दूर रहना परायों से,
मन में बसाया ये डर।
थोड़ी और बड़े होने पे,
कायदे सिखाते हर बात पे।
दिया जाता ये डर,
जाना है दूसरे घर।
सीख ये दी जाती हर पल,
एक भी गलत कदम पे
कुल के नाक कट जाने का डर।
गलत कदम हो किसी और का,
फिर भी जिंदगी भर तंश झेलने का डर।

अब हुआ ब्याह..
दिल था अरमानों से भरा....पर!
पराये घर से आई है....
सुन, मन ही मन गई डर।
ससुराल वालों की सेवा में,
रह ना जाये कोई कोताही
हर वक्त बना रहता ये डर।
कभी पति का डर,
कभी तानों का डर,
एक दूर होता नहीं ,
की आ जाता दूसरा डर।

अब बच्चों के लालन पालन का डर,
उनके शिक्षा और विकास का डर
बढ़ती उम्र में उन्हें
बुराइयों से दूर रखने का डर।
फिर नीड  हुआ खाली,
उड़ गए पंछी बनाने को नए घोंसले
चलो अब तो अपने आंसू पोंछ लें।
पर!अब कटेंगे दिन कैसे
इस बात का डर।।

अभी कहाँ खत्म हुई कहानी
बढ़ते उम्र की शुरू हुई कई परेशानी...
चाह होती कुछ कहने की
फिर  भी रखो मुँह बंद,
नहीं तो बच्चों का डर।
डर, डर, डर....
डर बनाम स्त्री का जीवन,
कभी ना होगा,...क्या?
इसका निराकरण!

पर...मर मर कर जीना
अब मंजूर नहीं,
अपनी कमी को
ना बनाओ अपना डर,
हौसला दिखाओ
और डर को डराओ।
डर को  खुद की
हिम्मत बनाओ।।

डर से ना तुम डरना
निर्भीक हो के बढ़ना
सुनना जरूर सबकी
करना अपने मन की
डर कंहीं और नहीं,
है तुम्हारे अंदर।
मन का डर भगाना
डर से ना तुम डरना।।
                  पूनम😯

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

नहीं मैं कोई कवयित्री!!



कवयित्रि!......नहीं ,
मै  कहाँ कवयित्री कोई।
नहीं रचती मैं कोई कविता
मैं,सिर्फ एक 'नारी' हूँ ,
जो,सिर्फ अपने भावों से भारी हूँ ।
दिल के पन्ने से उतार ,
कर देती कलम बद्ध ,
सदाशयता से हिय के बोल।।

कौन अपना ,कौन पराया
ये जग तो है सिर्फ मोह माया।
सुख-दुख में प्लवन करती,
जीवन नैया की खेवैया हूँ मैं
सपनों की गठरी हूँ मैं,
सिर्फ एक 'नारी' हूँ मैं

चित्तवृत्ति को समझना तो दूर,
ये तुमने मुझे क्या बनाया।
दिल ने दिल के अरमानों को ना समझ
कवयित्री का ये चोला क्यों पहनाया।।

नहीं!.......मैं शब्दों से खेलती भी नहीं,
ना बुनती हूँ शब्दों का कोई जाल,
मैं तो अपने अरमानों को पहनाती हूँ
बस कुछ शाब्दिक जामा,
सजाती हूँ उन्हें कल्पना के उड़ान से,
संवारती हूँ भावों की लहरों के उत्थान से।
ना ही कोई ज्ञान मुझे कवि या कविता का,
ना ही कोई अरमान.. कवयित्री बनने का।

मैं तो बस एक साधारण सी बाला
जो सब की, पर कोई नहीं उसका आला।
अपने एकाकीपन को सहलाती
कभी खिलती ,कभी कुम्हलाती
ख्वाबों को निहारती,कुछ रच जाती।
नहीं, मुझे नहीं बनना कवयित्री।

हाँ ....हास्य,रुदन,गायन
हर भावों में कर विचरण,
करती सर्व जीवन यापन
सृष्टि की सृजन कर्ता,
स्वयं में ही सर्वग्या।
सिर्फ और सिर्फ एक 'नारी'हूँ मैं,
नहीं.....नहीं कोई कवयित्री मैं ।।
पूनम😊

तट

तोड़ते रहे तुम बंदिशें , और समेटती रही मैं,  बारंबार ! की कोशिश जोड़ने की, कई बार ! पर गई मैं हार , हर बार ! समझ गई मैं, क्यु हूँ  बेकरार ! ...