मंगलवार, 26 सितंबर 2017

जिंदगी है क्या?

सोचा हर बार,
जिंदगी  है क्या ?
जो दिखता है , वो है !
या जो दिखाते हैं , वो है!
लोग जो देखते हैं ,
वो है क्या?
सिर्फ देखना,
दिखाना ही जिंदगी है क्या?

तो जो जीते हैं हम अपने भीतर !
वो है क्या?
जिसे जीते हैं हम खुद,
वो भाव,
जिसे करतें हम अहसास,
धड़कता है दिल जो अपना,
कोई ना कर पाए उसका भास,
यही जिंदगी है क्या ?

स्वपरिचय,या 'अपनों' से,
स्व का आभास!
'अपनों से' ,दिया गया आस
या हो हर वक़्त परिहास।
बेशक बन जाओ जिंदा लाश,
यही जिंदगी है क्या??

उम्मीद की गठरी बांधते,
बीत गई ताउम्र ।
करती रही किस्मत अपने कर्म,
समझ सका ना कोई इसका मर्म।

फिर भी दो पल 'अपनों' का साथ,
जीने का कराए अहसास,
ये शब्दों का ताना बाना
या खुद को बहलाना,
यही जिंदगी है क्या?
क्या यही जिंदगी है क्या?
पूनम🤔

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! ऐकान्तिक शून्य में अपनेपन के एहसास को कसमसाती कामनाओं के अध्यात्म को अपनी कविता का दर्शन बनाया है आपने! अंतरतम के संगीत का अनहद आह्लाद! बधाई और आभार!!

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  2. बहुत ही सुन्दर दार्शनिक रचना

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  3. जिंदग़ी का दूसरा नाम खोज है। कभी शब्दों से, कभी भावनाओं से कभी विचारों से और कभी अनुभूतियों से इसे खोजें, परंतु जो अंदर है, उसे ही खोजें, मुखौटा लगाकर कुछ भी ना खोजें, यही जिंदग़ी है।
    मन को शांति प्रदान करने वाला सृजन।
    नमन।

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  4. सुन्दर रचना प्रिय पूनम जी | जीवन के अबूझ प्रश्नों के उत्तर ढूंढती भावपूर्ण रचना | शायद हर कोई इन प्रश्नों से गुजरता है | पर अंततः यही पता चलता है कि अपनों के सानिध्य का सुख ही असली सुख है |इसके उतर बाहर नहीं बल्कि भीतर ही मिलते हैं | हार्दिक शुभकामनाएं | बहुत दिनों के बाद ब्लॉग पर हलचल हुई , अच्छा लगा | कृपया नई रचनाएँ भी डालें | सस्नेह -

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