कहतें हैं कि जब बचपन की याद आने लगे, मतलब आप अपनी जिंदगी के संजीदे पड़ाव पर आ गए हैं।अब ये बात सच है या नहीं, ये तो नहीं मालूम मुझे। लेकिन अस्वस्थता की स्थिति में अपने वातानुकूलित कक्ष में पड़े हुए मुझे बहुत याद आ रहा है अपना बचपन ।
बार बार याद आती है,वो बचपन की बातें।
गाँव की वो चौखट,
जहाँ बैठी होतीं थी घर की बड़ी बूढ़ी
और आते जाते किसी राहगीर से उसका हालचाल जरूर पूछतीं, किस गाँव के हो,भैया ,बाबू.........जो भी संबोधन होता ,जरूर करतीं.....थोड़ा पानी तो पी लो।
और वो राहगीर भी ,भले ही वो फेरी वाला हो या कोई और, ड्योढ़ी के बाहर ही थोडे बाएं हट के बने कुएं के मेड पे जरूर बैठता। और कैसी हैं मालकिन , कह कर कुछ बात चीत शुरू हो जाती।हम बच्चों को घर के अंदर से कुछ चना चबेना उस के लिए लाने के लिए कहा जाता।
बहुत छोटी थी तो मैंने ऐसा अपनी दादी को करते देखा था। बड़ा मजा आता था हमें।जब घर के भीतर जाती कुछ मांगने उस राहगीर के लिए तो, माँ या चाची जो व्यस्त होतीं घर के काम काज में,थोड़ा कुनमुना भी जातीं। 'बूढ़ी' को तो कोई काम नहीं है,दिन भर ड्योढ़ी पर बैठ हुकुम चलाते रहती हैं।लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता था,हम तो अपने खेलने के लिए परेशान रहते थे और जल्दी दो ना कुछ कह के चिल्लाते।।।कभी कभी इन सब के चक्कर में, हम डांट भी खा लेते,लेकिन परवाह किसे थी।
बाहर दादी उस राहगीर से अपनी बीमारी से लेकर फसल कैसी हुई और बहुएं कैसी हैं सारी बातें बतिया लेतीं।कभी कभी तो आस पास के गाँव से शादी ब्याह भी पक्का हो जाता।।।
आज सोचती हूँ मैं कि अब संभव है ऐसा क्या?अब तो दरवाजे पर आये किसी अनजान इंसान से डर लगता है।भले ही इस चक्कर में हम जरूरत मंद को भी नहीं पूछते।
उस समय तो हम छुट्टियों में गाँव जाते थे,गर्मी की छुट्टियां गाँव में ही बीतती थी।
और तब हमें ऐसी गर्मी भी तो नहीं लगती थी।पूरी दोपहरी लाख डांट सुनने के बाद भी हम सब बच्चे, आम के टिकोरे चुनने निकल जाते थे।क्या मजेदार दिन थे !!
आज वातानुकूलित कमरे में लैपटॉप, मोबाइल में बैठे बच्चों के लिए ये सब सिर्फ कहानी मात्र है।।और समझे भी कैसे वो,इसमें भी तो हमारी ही गलती है।
घर के आम कामकाज से थकी ,सोती हुई माँ-चाची से छूप कर हम सब बच्चे भरी दोपहरी में छत के उस कोने में अड्डा जमाते थे,जहां से पीपल का पेड़ लगा हुआ था।और क्या ठंडक होती थी ! उस पीपल के पतों के हवा में......वो आज तक कहीं ना मिला हमे। हम शहर में रहने वाले भाई बहन,उन गाँव के बच्चों के पीछे लगे रहते थे। हम उन्हें ज्यादा होशियार समझते थे क्यों कि वो हमें पीपल के पेड़ के भूत से लेकर गाँव के पोखर में रहने वाले मंडूक( भूत) की ढेर कहानियां सुनाते रहते थे,और उसके ऐवज में बड़ी मुश्किल से चुने हुए हमारे आम पर हाथ साफ करते रहते थे।ये हमें अब समझ मे आता है....., हाहा।।
धीरे धीरे हम भी बड़े हो गए। दादी भी नहीं रहीं।।अब कुछ अलग मौकों पर भी गावँ जाना होता रहा जैसे, बाबा ,दादी के श्राद्ध वगैरह और शादी ब्याह के उन मौकों ने हमें थोड़ा और बड़ा कर दिया।मां ,चाची के व्यवहार में भी हमें बदलाव दिखने लगा।कल तक दादी के कहे जिन कामों से कभी चिढ़तीं थीं वो,आज वही काम करते दिखती थीं वो हमें।फिर भी उस समय हमें इतनी समझ कहाँ थी।
समय बीतता गया ,समय के साथ हम भी व्यस्त होते गए।स्कूल की बडी कक्षा के बाद कॉलेज के हॉस्टल प्रवास में व्यस्त हो गए हम भी ।गाँव जाना उतना क्रमिक ना रहा। जाते थे पर काफी कम समय के लिए। उस के बाद शादी भी हो गई तब तो और भी कम हो गया।ससुराल, पढ़ाई और मम्मी के पास जाने से कभी समय ही न मिल पाता ।लेकिन चाचा चाची से समय समय पर मिलना यत्र तत्र हो जाता था।
जीवन की व्यस्तता ने हमें और बड़ा कर दिया था।इसी बीच एक बार मौका मिला फिर गाँव जाने का।चाचा के बेटे को पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई थी।मुझे बड़े अरमानों के साथ बुलाया गया।इन सब में मैं ये बताना कैसे भूल सकती हूँ कि मेरे चाचा चाची के तीन पुत्रियों के साथ एक पुत्र था, हम सब साथ में ही पापा के पास शहर में रह कर पढ़ते थे,जो की उन दीनों मे आम बात थी।चाचा चाची गाँव में रहते थे। सबसे खास बात ये कि मुझसे चाचा और चाची दोनों का बहुत हीं लगाव था और ढेर लाड़ मिलता था मुझे । दोनों हीं मुझसे अक्सर अपने दिल की बात किया करते थे ,पता नहीं क्यों।
हां तो मैं कह रही थी कि गाँव से चाचा से मिले मुझे खास निमंत्रण में जाने के लिए मैं भी बहुत उत्साहित थी और गई भी। बड़ा मजा आ रहा था,अपने बचपन के दिनों का पुनरावृत्ति तलाश रही थी मैं पर जो शायद संभव नहीं था।
उन्हीं चार दिनों के गाँव प्रवास की एक दोपहरी में जब मैं बाहर निकली तो वही ड्योढ़ी.....पर वहां दादी की जगह चाची
बैठी थीं ,ऐसा लगा जैसे समय दुहरा रहा रहा था अपने आप को।बड़ा अच्छा लगा मुझे,मैं भी बैठ गई वंही चाची के पास।लौट आया मेरा बचपन, लेकिन अब बहुत कुछ समझने लगी थी मैं।शब्द वही थे बिल्कुल जो दादी के हुआ करते थे,लेकिन पात्र बदल गये थे।दादी की बहू की बातों के जगह अब चाची की बहू की बातें थीं।।
समय ने एक पीढ़ी करवट ले ली थी।
सबसे दुखद तो मेरे लिए ये रहा कि चाची से मेरी वो आखिरी मुलाकात रही।उसके बाद रह गई सिर्फ उस ड्योढ़ी की यादें,सिर्फ खट्टी मीठी यादें।।
. पूनम😊
बार बार याद आती है,वो बचपन की बातें।
गाँव की वो चौखट,
जहाँ बैठी होतीं थी घर की बड़ी बूढ़ी
और आते जाते किसी राहगीर से उसका हालचाल जरूर पूछतीं, किस गाँव के हो,भैया ,बाबू.........जो भी संबोधन होता ,जरूर करतीं.....थोड़ा पानी तो पी लो।
और वो राहगीर भी ,भले ही वो फेरी वाला हो या कोई और, ड्योढ़ी के बाहर ही थोडे बाएं हट के बने कुएं के मेड पे जरूर बैठता। और कैसी हैं मालकिन , कह कर कुछ बात चीत शुरू हो जाती।हम बच्चों को घर के अंदर से कुछ चना चबेना उस के लिए लाने के लिए कहा जाता।
बहुत छोटी थी तो मैंने ऐसा अपनी दादी को करते देखा था। बड़ा मजा आता था हमें।जब घर के भीतर जाती कुछ मांगने उस राहगीर के लिए तो, माँ या चाची जो व्यस्त होतीं घर के काम काज में,थोड़ा कुनमुना भी जातीं। 'बूढ़ी' को तो कोई काम नहीं है,दिन भर ड्योढ़ी पर बैठ हुकुम चलाते रहती हैं।लेकिन हमें क्या फर्क पड़ता था,हम तो अपने खेलने के लिए परेशान रहते थे और जल्दी दो ना कुछ कह के चिल्लाते।।।कभी कभी इन सब के चक्कर में, हम डांट भी खा लेते,लेकिन परवाह किसे थी।
बाहर दादी उस राहगीर से अपनी बीमारी से लेकर फसल कैसी हुई और बहुएं कैसी हैं सारी बातें बतिया लेतीं।कभी कभी तो आस पास के गाँव से शादी ब्याह भी पक्का हो जाता।।।
आज सोचती हूँ मैं कि अब संभव है ऐसा क्या?अब तो दरवाजे पर आये किसी अनजान इंसान से डर लगता है।भले ही इस चक्कर में हम जरूरत मंद को भी नहीं पूछते।
उस समय तो हम छुट्टियों में गाँव जाते थे,गर्मी की छुट्टियां गाँव में ही बीतती थी।
और तब हमें ऐसी गर्मी भी तो नहीं लगती थी।पूरी दोपहरी लाख डांट सुनने के बाद भी हम सब बच्चे, आम के टिकोरे चुनने निकल जाते थे।क्या मजेदार दिन थे !!
आज वातानुकूलित कमरे में लैपटॉप, मोबाइल में बैठे बच्चों के लिए ये सब सिर्फ कहानी मात्र है।।और समझे भी कैसे वो,इसमें भी तो हमारी ही गलती है।
घर के आम कामकाज से थकी ,सोती हुई माँ-चाची से छूप कर हम सब बच्चे भरी दोपहरी में छत के उस कोने में अड्डा जमाते थे,जहां से पीपल का पेड़ लगा हुआ था।और क्या ठंडक होती थी ! उस पीपल के पतों के हवा में......वो आज तक कहीं ना मिला हमे। हम शहर में रहने वाले भाई बहन,उन गाँव के बच्चों के पीछे लगे रहते थे। हम उन्हें ज्यादा होशियार समझते थे क्यों कि वो हमें पीपल के पेड़ के भूत से लेकर गाँव के पोखर में रहने वाले मंडूक( भूत) की ढेर कहानियां सुनाते रहते थे,और उसके ऐवज में बड़ी मुश्किल से चुने हुए हमारे आम पर हाथ साफ करते रहते थे।ये हमें अब समझ मे आता है....., हाहा।।
धीरे धीरे हम भी बड़े हो गए। दादी भी नहीं रहीं।।अब कुछ अलग मौकों पर भी गावँ जाना होता रहा जैसे, बाबा ,दादी के श्राद्ध वगैरह और शादी ब्याह के उन मौकों ने हमें थोड़ा और बड़ा कर दिया।मां ,चाची के व्यवहार में भी हमें बदलाव दिखने लगा।कल तक दादी के कहे जिन कामों से कभी चिढ़तीं थीं वो,आज वही काम करते दिखती थीं वो हमें।फिर भी उस समय हमें इतनी समझ कहाँ थी।
समय बीतता गया ,समय के साथ हम भी व्यस्त होते गए।स्कूल की बडी कक्षा के बाद कॉलेज के हॉस्टल प्रवास में व्यस्त हो गए हम भी ।गाँव जाना उतना क्रमिक ना रहा। जाते थे पर काफी कम समय के लिए। उस के बाद शादी भी हो गई तब तो और भी कम हो गया।ससुराल, पढ़ाई और मम्मी के पास जाने से कभी समय ही न मिल पाता ।लेकिन चाचा चाची से समय समय पर मिलना यत्र तत्र हो जाता था।
जीवन की व्यस्तता ने हमें और बड़ा कर दिया था।इसी बीच एक बार मौका मिला फिर गाँव जाने का।चाचा के बेटे को पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई थी।मुझे बड़े अरमानों के साथ बुलाया गया।इन सब में मैं ये बताना कैसे भूल सकती हूँ कि मेरे चाचा चाची के तीन पुत्रियों के साथ एक पुत्र था, हम सब साथ में ही पापा के पास शहर में रह कर पढ़ते थे,जो की उन दीनों मे आम बात थी।चाचा चाची गाँव में रहते थे। सबसे खास बात ये कि मुझसे चाचा और चाची दोनों का बहुत हीं लगाव था और ढेर लाड़ मिलता था मुझे । दोनों हीं मुझसे अक्सर अपने दिल की बात किया करते थे ,पता नहीं क्यों।
हां तो मैं कह रही थी कि गाँव से चाचा से मिले मुझे खास निमंत्रण में जाने के लिए मैं भी बहुत उत्साहित थी और गई भी। बड़ा मजा आ रहा था,अपने बचपन के दिनों का पुनरावृत्ति तलाश रही थी मैं पर जो शायद संभव नहीं था।
उन्हीं चार दिनों के गाँव प्रवास की एक दोपहरी में जब मैं बाहर निकली तो वही ड्योढ़ी.....पर वहां दादी की जगह चाची
बैठी थीं ,ऐसा लगा जैसे समय दुहरा रहा रहा था अपने आप को।बड़ा अच्छा लगा मुझे,मैं भी बैठ गई वंही चाची के पास।लौट आया मेरा बचपन, लेकिन अब बहुत कुछ समझने लगी थी मैं।शब्द वही थे बिल्कुल जो दादी के हुआ करते थे,लेकिन पात्र बदल गये थे।दादी की बहू की बातों के जगह अब चाची की बहू की बातें थीं।।
समय ने एक पीढ़ी करवट ले ली थी।
सबसे दुखद तो मेरे लिए ये रहा कि चाची से मेरी वो आखिरी मुलाकात रही।उसके बाद रह गई सिर्फ उस ड्योढ़ी की यादें,सिर्फ खट्टी मीठी यादें।।
. पूनम😊
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