शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

खुदगर्ज वर्षा !!

रात भर वर्षा रानी ने की है अपनी मनमानी
नाच नाच कर की है धरती को पानी पानी।
बडी मनमौजी,अलमस्त ,खुदगर्ज ये वर्षा,

जब धरती जल रही थी तो कहां थी,
माथे पे सूरज तप रहा था तो कहां थी
मन करे तो क्रूर बने , मन करे तो हर्षा।
बड़ी मनमौजी ,खुदगर्ज ये वर्षा।।

धरती के तपन को बुझाने चली हो
या करने अपनी मनमानी चली हो,
जब होती है धरा को तुम्हारी चाह
लेती नहीं तुम इसकी कोई थाह।
अब उछल उछल कर इसे सताने चली हो,
इसके तपन को और बढ़ाने चली हो।।

भू बेचारी नादान ,
बस तुम्हारे आने से
आ जाती है उसमें जान
धरती तो धरती है
प्यार से जो आये
करती है सर्वस्व उसे दान।
खोल बाँहे, समेट लेती है
करने को अपने अंगों का पान।।
भले तुम डूबा दो इसे
मचा दो त्राहि माम।

बरखा तेरे आने भर से होता
मन मुदित,हर्षित,
सर्वत्र उमंग भर जाता है,
दिल होता है बाग-बाग,
कलियांं पुष्पित हो जाते हैं।
नाच उठते पेड़ पौधे,
हवाएं गाती मल्हार।
जीव जंतु लेते अठखेलियां,
पंछी चहकने लग जाते हैं।।
तपते, तड़पते दिल को
कुछ तो ठंडक दे जाते हैं

पर ये सब कुछ दिनों की बात
फिर......तपने को छोड़ जाओगी।
नाचते गाते निकल जाएगी ये बरसात
तड़पाओगी, जलाओगी, बिताओगी अर्सा
बड़ी मनमौजी,मदमस्त खुदगर्ज ये वर्षा।।
पूनम⚡


3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति वर्षा पर।

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  2. प्रिय पूनम जी -- बरसात को बड़ा ही रोचक और सार्थक उपालम्भ दिया आपने और एक नयी दृष्टि से देखा है बरखा को |मैंने तो कभी सोचा भी नहीं होगा कि वर्षा खुदगर्ज भी हो सकती है | पर जहाँ ना पहुंचे रवि -- वहां कविदृष्टि चली जाती है | आपने खूब लिखा | सराहनीय सृजन के लिए शुभकामनायें |

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