शनिवार, 11 नवंबर 2017

सांसारिक वृक्ष!!


माँ! दरख़्त एक!
जिसकी शाखाएँ अनेक,
जितनी शाखा, उतने राह
सबकी अपनी जिंदगी,अपनी चाह।
पर जुड़े हैं सब एक ही दरख़्त से,
रखे सारे शाखाओं को ,
अपने सीने से लगा कर।
ऊपर उठती शाखा,
नीचे गिरती शाखा।
हर एक को संभालती,
प्रत्येक के बोझ को उठाती,
हर के सुख-दुख को संभालती।
माँ, अपने सारे दर्द को दबाती
तन कर खड़ी है दरख़्त बन कर।

टहनियां भी पकड़े रहती हैं
अपने दरख़्त को तब तक,
वो उठा रहीं उनका बोझ जब तक,
उन्हें भी कभी दिख जाता
अपने दरख़्त के दर्द,
सहला देते अपनी हरी पत्तियों से।
सर्दी, गर्मी,पतझड़,वसन्त,वर्षा
हर ऋतु को झेलती ,
फिर भी रही हर्षा।
दरख़्त तो खुश रहती
सिर्फ अपने झूमते ,
हरे टहनियों को देख।

पर इन टहनियों को नहीं दिखता,
खड़ी है अटल,अडिग क्यों दरख़्त
क्योंकि 'तुम' हो इसके
संबल पुख्त,तुम यानी
'पिता' उन टहनियों के,
'पति' उस दरख़्त के,
जिसने रखा है 'चेतन' सब को,
'खुद' जड़ बन कर!
हां जड़ ही तो हो तुम,
प्रफ्फुलित सब,अगर सिंचित तुम।
दिखे सब को हरे दरख़्त,
शाखाओं की हरियाली,
पर 'मूल' तो हो तुम।।

जुड़े हो उन शाखाओं से,
दरख़्त के माध्यम से ,
खुद जमींदोज रह कर,
धूल धुसरित रह कभी सामने न आये।
रहे खुद में ही ,खुद बनाये अपनी राह,
कभी रखी न कोई चाह,
ना भरी कोई आह।
पकड़े रहे भूमि को कस कर,
सिर्फ पनपाने को,
महकाने को, बगिया -संसार।

ये टहनी! देखो उसे,
जिससे लिपटे हो,
उसके वश में हो तो वो सदैव
तुम्हारे किस्मत को संवारती रहे,
देखो उसे ,जो थाम रखा है,
तुम्हारे पावँ के नीचे की जमीं को
खुद उसमें हो कर समाहित,
कर रहा तुम्हें प्रस्फुटित।
खूब उठो,लहलहाओ,चुमों आसमां को,
भूलो ना कभी दरख़्त और उस मूल को,
जिसने बनाया तुम्हें ....
दुनिया में सदैव गतिशील रहने को।।
पूनम❤️

1 टिप्पणी:

  1. सच कहें तो वसुधा के अन्दर समाहित माँ मूल है जो जमीन पर तने से पिता को न केवल थामे रखती है, बल्कि उसी के माध्यम से अपनी शिशु टहनियों को जीवन का रस पहुंचाती है जो फूल बनकर जग में अपनी मुस्कराहट बिखेरते हैं और इस सृष्टि में चैतन्य का आभास दिलाते हैं. गीता में भी भगवान् ने इस संसार अश्वत्थ का मूल स्वयं को माना है., अर्थात अपने को माँ के समकक्ष रखने का गौरव हासिल करते हैं. इसलिए जननी-सानिध्य के सुख को स्वर्गिक सुख से भी श्रेष्ठ माना गया है.
    बहुत सटीक और शाश्वत शब्द हैं आपके :-
    "खूब उठो,लाहलहाओ,चुमों आसमां को,
    भूलो ना कभी दरख़्त और उस मूल को,
    जिसने बनाया तुम्हें ....
    दुनिया में सदैव गतिशील रहने को।।"
    ....... बहुत सुन्दर, अप्रतिम और अनूठी कालजयी रचना ! बधाई और आभार!!!

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