पयोनिधि, असंख्य पयस्वनी संग,
नित्य उल्लसित, आवेगीत होने वाले,
अपने दर्प में चूर तुम,
क्या जानो तटिनी....
कितने ठोकर खा बहती हैँ।सरल,सरस,सलिल नीर लिए,
तट से बंध, रहने वाली सरी,
कब,क्यों,किस वेदना में...
तड़प,तडप कर दर्द सहती है।
अट्हास का गर्जन करने वाले पयोनिधि,
कब तुमने तरनी के तरंगों को जाना है।
विस्तरित कर सिर्फ अपना किनारा,
कहाँ तुमने उसके दायरे को माना है।
कहाँ तुमने उसके दायरे को माना है।
कर अपना सर्वस्व न्योछावर,
सरी ने खुद को विलीन किया ।
फिर भी छलकते तरंगिनि के
दर्द को क्या तुमने पहचाना है।
खुद ही पथ बना कर चलती,
पग पग पर तृप्त सभी को करती
पत्थर तट पर सर,पटक पटक
तटिया भी तो थकती है।
पग पग पर तृप्त सभी को करती
पत्थर तट पर सर,पटक पटक
तटिया भी तो थकती है।
कर पापों को सबके साफ,
खुद मलिन रहना ही तो सरी की नियति है।
खुद मलिन रहना ही तो सरी की नियति है।
बाढ़, सूखे का दंश सहती
सारे दुख दर्दों को समेटे,
गंगा,यमुना,सरस्वती जो भी हो नदिया.....
अपने दर्द को किससे बांटे ,
गंगा,यमुना,सरस्वती जो भी हो नदिया.....
अपने दर्द को किससे बांटे ,
जलनिधि के लिए सिर्फ एक धार ही है वो।
न कोई मान, न मर्यादा,
नद की ना है अस्तित्व कोई....
सुख कर धूल धूसरित हो,
मिट्टी में मिल जाना ....
और सागर में समा जाना है
तट से बंधी. . जन्म से, तटिनी को,
हो जलधि में ....विलीन जाना है..
.....विलीन हो जाना है।।
हो जलधि में ....विलीन जाना है..
.....विलीन हो जाना है।।
पूनम😑
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