बुधवार, 28 मार्च 2018

शाम के ढलते हीं.......बढ़ जाती हैं तन्हाईयाँ!!



ऐ रब, छीन ले मुझसे
मेरा हाफीजा,
इससे पहले की
फट जाए कलेजा।
ढल गए वस्ल के दिन
आ गई हिज्र के रात।
पल पल याद आती
तुम्हारी हर वो प्यारी बात।।

शाम के ढलते ही
बढ़ जाती है तन्हाईयाँ।
बड़े याद आते
तुम तन्हाइयों मे...
बड़े याद आते
तुम उदासियों में....
पर याद आते
बेहद...... खुशियों में,
खुशी का हर लम्हा
तो आती है सिर्फ ,
तुम्हारे आने से।

इंतजार बन गई है जिंदगी,
तुम ही तो हो मेरी बंदगी।
मिलन की चाह बढ़ जाती
हर बार रुख़सत के बाद।

तुमसे सिर्फ चाहत की
उम्मीद ही तो रखी है,
भुला बैठी  खुद को,
समाहित हो गई तुममें,
आ जाओ न साथी,
बढ़ा दो न हाथ प्रिय।

अपना एक सतरंगी सपना
इन्द्रधनुष जैसा घर अपना,
बादलों के झुरमुठ से भी
ना हारेंगे हिम्मत हम।
खिलखिलाएंगे
जिंदगी के सारे रंग
जब मिल बैठेंगे संग।

अलकों से लगा कर रखना,
सीने में छुपा कर रखना,
कल जब रहूंगी ना मैं शेष,
बच जाएंगे सिर्फ अवशेष
देख कर उन भस्मों को
कुछ तो होगा भान
करते थे कितना मान।
बस दे देना इतना सम्मान।।



हाफीजा-याददाश्त,स्मरण शक्ति
वस्ल-मिलन
हिज्र-विरह,जुदाई
रुख़सत-विदाई

1 टिप्पणी:

  1. वाह!!! बहुत खूब!!!
    दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैं
    तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
    दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
    खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

    जवाब देंहटाएं

तट

तोड़ते रहे तुम बंदिशें , और समेटती रही मैं,  बारंबार ! की कोशिश जोड़ने की, कई बार ! पर गई मैं हार , हर बार ! समझ गई मैं, क्यु हूँ  बेकरार ! ...